गुरुवार, जून 25, 2020

अब तो डराने लगी है मुंबई


राकेश दुबे

मुंबा देवी की नगरी मुंबई से डर? सपनों की नगरी मुंबई से डर? यह मैं क्या लिख रहा हूं? दिन – रात दौड़ने और कभी न थमने वाली मुंबई से डर? हर जाति, हर धर्म और हर प्रांत के लोगों को अपने
आंचल की छांव में हमेशा सुख देने वाली मुंबई से डर? सबको रोजगार, मान, सम्मान, शोहरत और दौलत देने वाली मुंबई से डर? अरे रे रे यह क्या हो गया है मुझे? ये कैसी बात कर रहा हूं मैं? नहीं जनाब, मुझे कुछ नहीं हुआ, मैं कोई ऐसी – वैसी बात नहीं कर रहा। जो कह रहा हूं, पूरी सच्चाई कह रहा हूं। मुंबई से डर एक हकीकत है और यह हकीकत है कोरोना संक्रमण के डर की, जिस वायरस से आज पूरी दुनिया डरी हुई है। मायानगरी मुंबई अब यहां के लोगों को डराने लगी है। यहां रह रहा प्रत्येक व्यक्ति डरा हुआ है। वह कब, कहां और कैसे कोरोना वायरस से संक्रमित हो जाएगा, उसे भी नहीं पता? उसे डर है मुंबई में कोरोना के बढ़ते संक्रमण का। क्योंकि कोरोना वायरस मुंबई में ही सबसे ज्यादा बढ़ रहा है। मुंबई का कोई भी ऐसा इलाका नहीं है, जहां कोरोना की पहुंच न हो। फिर वह झुग्गी – झोपड़ियां हों, चॉल हों, वाड़ियां हो, इमारते हों, हाउसिंग


कॉम्प्लेक्स हों या फिर गगनचुंबी इमारतें ही क्यों न हों। हर जगह पहुंच चुका है कोरोना। अब तो अस्पताल, पुलिस स्टेशन, जेल, होटल, सरकारी और गैर सरकारी कार्यालय, कॉर्पोरेट हाउसेस और एयरपोर्ट तक सुरक्षित नहीं हैं कोरोना से। इस महामारी के चलते मुंबई में कोरोना से संक्रमित लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है, दिनों दिन इसमें हजारों की संख्या में इजाफा भी हो रहा है। इस बीमारी से मरने वालों की संख्या भी यहां सबसे अधिक है। इसीलिए यहां के लोग डरे हुए हैं। लोगों को लगता है कि मुंबई में रुके रहे तो क्या भरोसा कब कोरोना की चपेट में आ जाएं? न जाने वह कब हमें पकड़ ले? बेहतर है कहीं और चला जाए। इसी कहीं और के चले चलने के भरोसे पर लोग अपने मूल गांव की ओर, अपने वतन की ओर और अपने फार्म हाउस की ओर जाने लगे हैं। और जाने वालों की संख्या कम नहीं, बल्कि बहुत ज्यादा है।  
एक तरफ कोरोना का जानलेवा संक्रमण और दूसरी ओर उद्योग धंधों का बंद होना। इससे आम ही नहीं खास आदमी भी पिस कर रह गया है। व्यापार ठप है, किसी भी तरह की व्यावसायिक गतिविधियां शुरू नहीं हो पा रही हैं। यदि कोई एक व्यवसाय शुरू भी हो रहा है तो उससे जुड़ा दूसरा व्यवसाय करने वाले लोग काम पर नहीं आ रहे हैं। मजदूर लाखों की तादाद में मुंबई से पहले ही जा चुके हैं। अब तक तो मजदूर और झुग्गी – झोपड़ियों में रहने वाले लोग मुंबई से पलायन कर रहे थे, मगर अब हालात यह है कि बड़े – बड़े और धनाढ्य लोग पलायन करने लगे हैं। कोरोना अब बड़े लोगों को भी डराने लगा। लॉकडाउन के चलते धंधा – व्यवसाय में मंदी और अब अनलॉक में उद्योग धंधों पर लगी अघोषित तालाबंदी ने मुंबई से व्यवसायी और उद्योगपतियों तक का मोह भंग कर दिया है। अब इमारतों, हाउसिंग कॉम्प्लेक्सों और गगनचुंबी इमारतों में रहने वाले बड़े लोग भी मुंबई छोड़कर जाने लगे हैं। मुंबई में लॉकडाउन से जहां एक ओर सभी व्यवसाय लगभग चौपट हो गए हैं तो दूसरी ओर अनलॉक के बावजूद कामकाज न होने के कारण लोगों का यहां से बाहर निकल जाने का सिलसिला अब चल पड़ा है। इसके पीछे का मुख्य कारण कोरोना संक्रमण का बढ़ता कहर और उद्योग धंधों का ठप पड़ना बताया जा रहा है। लॉकडाउन में यहां के मजदूर और गरीब वर्ग के लोग पहले ही पलायन कर चुके और अब अनलॉक में व्यापारी, प्रोफेशनल और बड़े – बड़े उद्योगपति शहर छोड़कर जाने लगे हैं। हवाई जहाज और रेलवे में हुई बुकिंग को देखकर इस बात का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। अनलॉक के बाद से मुंबई से बाहर जाने वाली फ्लाइट्स और रेल गाड़ियों की बुकिंग आगामी एक महीने तक फुल है। ट्रेनों में अगले 15 दिन तक वेटिंग चल रही है। जाने वालों में ज्यादातर उद्योगपति, व्यवसायी और प्रोफेशनल हैं, जो शहर छोड़कर जा रहे हैं। ये लोग कब तक वापस लौटेंगे, उन्हें भी नहीं पता। बसों से भी ये लोग मुंबई से बाहर जा रहे हैं और अपनी निजी गाड़ियों से भी। 


मुंबई में कोरोना संक्रमण से हालात सुधरने का नाम नहीं ले रहे हैं, यही कारण है कि प्रवासी श्रमिकों के बाद अब कारोबारी, नौकरीपेशा, अलग – अलग व्यवसाय – धंधों से जुड़े लोग और उद्योगपति पलायन कर रहे हैं। पिछले दिनों महाराष्ट्र के गृह मंत्री अनिल देशमुख ने दावा किया था कि रोज कम से कम 15 हजार मजदूर मुंबई वापस लौट रहे हैं। जबकि बाहर से आने वाली ट्रेनें लगभग खाली आ रही हैं। मुंबई की ओर आने वाली ट्रेनों में मात्र 25 प्रतिशत लोग यात्रा कर रहे हैं। अब जब मुंबई में रोजगार देने वाले लोग ही यहां से पलायन कर रहे हैं, तो ऐसी स्थिति में मजदूर यहां आकर करेंगे क्या? उन्हें काम कहां मिलेगा? जानकार बताते हैं कि मुंबई ही नहीं पूरे देश में कोरोना से सितंबर या अक्तूबर तक ही छुटकारा मिल सकता है। ऐसे में अनिल देशमुख का दावा खोखला जान पड़ता है। काम ठप है, उद्योग – धंधे बंद हैं और कोरोना संक्रमण से मुंबई सबसे अधिक प्रभावित है। सरकार के पास कोरोना पर काबू पाने का कोई असरदार प्लान भी नहीं है। ऐसे में हालात जल्दी सुधरेंगे, इसके आसार नजर नहीं आते।
लोगों को अब अपने गांव खूब अच्छे लगने लगे हैं। ये वही गांव हैं, जहां छुट्टियों में या समय निकाल कर जाने वाले लोगों का पांच – दस दिन टिक पाना मुश्किल होता था, मगर वही लोग पिछले दो – तीन महीनों से वहीं रह रहे हैं। वहां की आबोहवा, वहां का पानी और वहां के खुलापन का महत्व अब लोगों की समझ में आ रहा है, खासकर उत्तर भारत में रहने वाले लोगों को। अब लोगों को लगता है कि मुंबई में रहने की बजाय यदि वे गांव में हैं तो ज्यादा सुरक्षित हैं। कम से कम कोरोना वायरस के संक्रमण से। मुंबई में रहने और बाहर से यहां आने वाले लोगों
को मुंबई अब अच्छी नहीं लग रही। क्योंकि मुंबई की चकाचौंध गायब है। यहां की गति एकदम से रुक गई है। चहल – पहल खो सी गई है। चारों ओर सन्नाटा सा पसरा है। हमेशा खिलखिलाती रहने वाली मुंबई मौन है। इन सबके बावजूद उम्मीद तो यही की जानी चाहिए कि आज भले ही मुंबई मौन है, उसकी हमेशा चलने और न थकने वाली गति रुक सी गई है, चहल – पहल खो गई है, चकाचौंध गायब है, मगर मुंबई में वह सुबह जरूर आएगी, जब फिर से एक बार वह दौड़ने के लिए उठ खड़ी होगी, अपनी पहले वाली उसी गति से दौड़ने के लिए और वह तेज रफ्तार से एक बार फिर चल पड़ेगी। एक नए उत्साह, नई ऊर्जा औऱ नई उमंग के साथ...। 

# लेखक - वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.

सोमवार, जून 15, 2020

तमाम उपलब्धियां भी खुदकुशी से नहीं रोक पायीं सुशांत सिंह को


राकेश दुबे

मौत को गले लगाने से पहले एक्टर सुशांत सिंह राजपूत ने अपने अंतिम इंस्टाग्राम पोस्ट में अपनी
दिवंगत मां को संबोधित करते हुए लिखा - आंसू की बूंदों से धुंधला अतीत हवा में घुलता जा रहा है अंतहीन सपने मुस्कान ला रहे हैं और एक क्षणभंगुर जीवन ..... दोनों के बीच से गुजर रहा है.... # मां
बस इसके बाद वे अपने ही घर में गले में फंदा लगाकर झूल जाते हैं। अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं। फिल्म इंडस्ट्री में बहुत ही कम समय में अपनी मेहनत से एक खास मुकाम हासिल करने वाले अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने आत्महत्या क्यों की? यह एक बहुत ही संवेदनशील प्रश्न है। सुशांत की खुदकुशी का कारण जाने माने लोग उनका अवसाद (डिप्रेशन) में जाना बताते हैं। वे
पिछले छह महीनों से अवसाद में थे और उनका इलाज भी चल रहा था। जिस स्टारडम, कामयाबी, धन दौलत और ऐशो आराम को हासिल करने के लिए इंसान जीवन भर भागता रहता है, तो क्या ये तमाम उपलब्धियां भी उसे अंततः संतुष्ट नहीं कर पाती?  डिप्रेशन में होने का अर्थ यह नहीं इंसान मौत को गले लगा ले? यह तो जीवन से लड़ने नहीं उससे हार मान लेना हुआ? 

सिल्वर स्क्रीन यानी फिल्मी दुनिया की चमक - धमक और ग्लैमर अच्छे - अच्छों को चौंधिया देता है। यह एक ऐसी दुनिया है जहां इंसान रातोंरात फर्श से अर्श पर पहुँच जाता है। यानी वह अचानक जमीन से आसमान तक पहुंच जाता है। शोहरत और बेशुमार दौलत के मद में वह यह भूल जाता है कि नीचे जमीन भी है? वह धरातल पर नहीं होता। उसे ज़मीन दिखाई नहीं देती। वह अपनी ही दुनिया में खोया - खोया सा रहने लगता है। वह अपनी एक अलग दुनिया बना लेता है। जहां सिर्फ ग्लैमर और ऐशो आराम होता है। एक्टिविस्ट आभा सिंह ने ट्वीट कर इस घटना को अवसाद से ही जोड़ा है। अब प्रश्न उठता है यह अवसाद पैदा ही क्यों होता है? खासकर कलाकारों में? वैसे आम लोग भी अवसादग्रस्त होते हैं, पर बहुत कम लोग होंगे, जो आत्महत्या करते हों। 

सुशांत के पिता केके सिंह रिटायर हैं। पटना में अकेले रहते हैं। क्योंकि सुशांत की मां का भी निधन हो चुका है। उनकी चार में से तीन बहनों की शादी हो चुकी है, जबकि एक बहन की पहले ही मृत्यु हो चुकी है। सुशांत मुंबई में अकेले तनहा थे और उनके पिता पटना में। यह दुर्भाग्य की ही बात है कि समाज में अब संयुक्त परिवारों का चलन लगभग समाप्ति की ओर है। परिवार सूक्ष्म से सूक्ष्म होते जा रहे हैं। अब तो ऐसा समय आ गया कि एक उम्र के बाद बच्चे भी अपने माता - पिता के साथ नहीं रहना चाहते। शायद यही हाल सुशांत का भी था। पिता से अलग रहने का। अन्यथा वे बांद्रा स्थित फ्लैट में पिता को अपने साथ रख सकते थे। मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया था। नतीजा अवसाद और फिर आत्महत्या।

बांद्रा के अपने फ्लैट में सुशांत फांसी लगा कर लटक गए। यदि उनके साथ पिता होते, तो क्या वे ऐसा कर पाते? शायद नहीं। इसलिए बच्चों के साथ अभिभावक का होना बहुत जरूरी है। सुशांत फिल्मी बैकग्राउंड वाले परिवार से नहीं थे। हां बचपन से ही उनका फिल्मों में जाने का मन अवश्य था, जैसा अमूमन आजकल के बच्चों में होता है। यह स्वाभाविक भी है। क्योंकि ग्लैमर की दुनिया है ही कुछ ऐसी। सबको यही लगता है कि फिल्म इंडस्ट्री में दौलत और शोहरत दोनों है? और है भी। मगर सिल्वर स्क्रीन के पीछे की सच्चाई से जब इंसान रूबरू होता है, तब इस दुनिया की हकीकत उसके सामने होती है और फिर उसके सारे अरमान एक - एक कर चकनाचूर होने लगते हैं। कड़ी मेहनत और लगन से जो व्यक्ति इंडस्ट्री में डटा रहता है, वही सुशांत सिंह राजपूत बनता है। इसमें कोई शक नहीं कि सुशांत ने मेहनत और लगन से फिल्म जगत में अपनी एक अलग पहचान बनाई।

बिहार के पुर्णिया जिले में 21 जनवरी, 1986 को जन्में सुशांत मैकेनिकल इंजीनियरिंग थे। एक छोटे शहर से निकल कर बहुत ही कम समय में सुशांत ने बॉलीवुड में सफलता हासिल की। सन 2008 में पवित्र रिश्ता नामक धारावाहिक से सुशांत सिंह राजपूत को अपने कैरियर में पहचान मिली। इससे पहले भी वे किस देश में है मेरा दिल नामक टीवी सीरियल कर चुके थे। झलक दिखला जा,  जरा नच के दिखा के जरिए उन्होंने टीवी पर भी खूब नाम
कमाया। फिल्म काई पो चे से बड़े पर्दे पर अपना डेब्यू करने वाले सुशांत ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। शुद्ध देसी रोमांस,  डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी,  पीके, राबता, एमएस धोनी, केदारनाथ, छिछोरे उनकी प्रमुख फिल्में हैं। फीजिक्स में नेशनल ओलिम्पियाड विनर सुशांत की एक बहन राज्य स्तर की क्रिकेटर है। एक उभरते हुए स्टार सुशांत ने खुदकुशी का फैसला क्यों लिया, इस पर हर कोई स्तब्ध है।

पटना के राजीव नगर में पिता केके सिंह के पास वे 11 मई को गए थे और वहां के एक मंदिर में पूजा अर्चना भी की थी।

ऐसा भी नहीं है कि सुशांत के साथ उनकी किसी को स्टार का नाम नहीं जुड़ा। टीवी सीरियल पवित्र रिश्ता में उनकी को स्टार अंकिता लोखंडे के साथ वे लंबे समय तक लिव इन रिलेशन में रहे। कहा जाता है कि दोनों के बीच बहुत लंबे समय तक रिश्ता रहा। ब्रेकअप के बाद दोनों के रिश्ते भले समाप्त हो गए थे, मगर सुशांत अंकिता को भूल नहीं पाए थे।
पिछले कुछ समय से रिया चक्रवर्ती के साथ उनका नाम जोड़ा जा रहा था। इसे संयोग कहें या दुर्योग अभी चार दिन पहले ही उनकी मैनेजर दिशा सालियन ने मालाड में इमारत की चौदहवीं मंजिल से छलांग लगा दी थी। वह अपने मंगेतर मॉडल व एक्टर रोहन राय के साथ उस इमारत में रहती थीं। अब मात्र चार दिन बाद ही सुशांत का इस तरह गले में फंदा लगाकर झूल जाना कई सारे सवाल पैदा करता है? जिस कलाकार से बॉलीवुड के लोग बहुत लंबी पारी खेलने की उम्मीद लगाए बैठे थे, उसका मात्र 34 साल की उम्र में अपने जीवन से मोहभंग कैसे हो गया? ऐसा क्या हो गया जिससे सुशांत को लगा कि उनका जीवन बेकार है? उन्हें ऐसा क्यों लगा कि आखिर वे जिंदा क्यों हैं? क्या वह अपने जीवन में बहुत अकेले हो गए थे? क्या इसी अकेलेपन ने उन्हें अपनी जिंदगी खत्म करने के लिए मजबूर कर दिया? अब सवाल बहुत होंगे? मगर उनका उत्तर अब उतना ही मुश्किल है, क्योंकि सुशांत सिंह राजपूत अब हमारे बीच नहीं हैं।

लेखक - वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.

रविवार, जून 14, 2020

दिल्ली बचाओ


राकेश दुबे

आखिर कैसे बचेगी दिल्ली कोरोना संक्रमण के प्रकोप से? कोविड - 19 महामारी से दिल्ली और दिल्ली वालों का बुरा हाल है। अनलॉक – 1 के बाद से दिल्ली में पॉजिटिव मामले तेजी से बढ़े हैं और
दिन प्रतिदिन इनमें हजारों का इजाफा हो रहा है। जिसके चलते इस पर काबू पा लेना अब दिल्ली सरकार के वश की बात नहीं रही। यहां के लोग बुरी तरह परेशान हैं। ऊपर से दूसरे राज्यों के कोरोना मरीज इलाज के लिए दिल्ली के अस्पतालों का रुख कर रहे हैं, जबकि दिल्ली के अस्पतालों में पहले से ही भीड़ है। दिल्ली सरकार के मंत्री तो यहां तक कह चुके हैं कि दिल्ली में कम्युनिटी स्प्रेड हो चुका है, मगर केंद्र सरकार इस बात को मानने को तैयार नहीं। कोरोना के बढ़ते हुए मामले पर दिल्ली के उप राज्यपाल सर्वदलीय बैठक कर इसका कोई हल ढ़ूंढ़ने की कोशिश में लगे हैं। आखिर हो क्या रहा है? दिल्ली में कोरोना के बढ़ते हुए मामलों पर ये सब करना क्या चाहते हैं? केंद्र सरकार दिल्ली के मुद्दे पर अलग – थलग क्यों खड़ी है? क्या उसकी जिम्मेदारी नहीं है कि वह दिल्ली के इन मसलों का कोई सही हल निकाले? क्या कोरोना विस्फोट के बाद ही दिल्ली की स्थिति के बारे में इन लोगों को बात समझ आएगी? यह बात दिल्ली के लोगों की भी समझ में नहीं आ रही।

मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल बीमार हैं। कुछ दिन पहले ही वे कोरोना मरीजों के बिगड़ते हुए हालात को देखते हुए दिल्ली से बाहर के कोरोना मरीजों का इलाज दिल्ली के अस्पतालों में न कराने की बात कह चुके हैं। पर उनकी बात का लोगों ने गलत अर्थ लगा लिया। और फिर उनकी उस बात को मानता कौन है? दिल्ली के अस्पतालों में बाहरी लोगों को इलाज की अनुमति न देने के केजरीवाल के बयान को दूसरे ही दिन उपराज्यपाल अनिल बैजल ने बदल दिया। आखिर हो क्या रहा है? यह बात दिल्ली के किसी भी व्यक्ति की समझ से परे है। माना कि देश का कोई भी नागरिक देश के किसी भी अस्पताल में अपना इलाज करा सकता है, हमारा संविधान उसे इसकी इजाजत देता है। मगर यहां प्रश्न यह उठता है कि ऐसे समय में जब दिल्ली के अस्पतालों में दिल्ली के ही कोरोना मरीजों के लिए पर्याप्त जगह नहीं है, तो वहां पर दिल्ली के बाहर से आने वाले लोगों का इलाज कैसे किया जाए? क्या यह गंभीर विषय नहीं है। क्या इस पर उप राज्यपाल सहित अन्य राज्यों की सरकारों को सोचना नहीं चाहिए? आखिर दिल्ली के बाहर के लोग अपने राज्य के अस्पतालों में ही अपना इलाज क्यों नहीं कराते?

कोरोना जैसी गंभीर और लाइलाज बीमारी के चलते आज पूरी दुनिया त्रस्त है। कोरोना से अब तक लाखों लोगों की जान जा चुकी है। भारत में भी मरने वालों की संख्या में दिन ब दिन इजाफा हो रहा है। मगर हमारे देश में बीमारी पर राजनीति हो रही है। दिल्ली की सीमा से सटे उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब की सरकारें अपने राज्य के कोरोना मरीजों की देखभाल अपने ही राज्य में क्यों नहीं कर रही हैं? यदि उनके पास अस्पतालों और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी है, तो यह उनकी अपनी निजी समस्या है। उन्हें अस्पताल और स्वास्थ्य सेवाओं का इंतजाम करना चाहिए। गाजियाबाद, फरीदाबाद, नोएडा, गुरुग्राम के लोग दिल्ली के अस्पतालों में ही इलाज क्यों कराना चाहते हैं? इसलिए कि दिल्ली देश की राजधानी है और वहां के अस्पतालों में इलाज की अच्छी और अत्याधुनिक व्यवस्था है। ऐसे में कहां जा सकता है कि उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार, हरियाणा की मनोहरलाल खट्टर सरकार और पंजाब की अमरिंदर सिंह सरकारें अपने – अपने राज्यों में स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं में फिसड्डी हैं? इतने समय में वे इलाज के अत्याधुनिक अस्पताल और बेहतर संसाधन क्यों नहीं जुटा पाईं? आखिर ये सरकारें यहां के शहरों के राजस्व का उपयोग करती हैं। दिल्ली सरकार को राजस्व का कोई हिस्सा नहीं मिलता। जब गाजियाबाद, फरीदाबाद, नोएडा और गुरुग्राम के राजस्व का कोई हिस्सा दिल्ली सरकार को नहीं मिलता, तो इन शहरों की सरकारें ऐसे में अपने लोगों का खयाल क्यों नहीं रख रही हैं? कोरोना जैसी महामारी से निपटने के लिए प्रत्येक सरकार को संयम और सूझबूझ से काम करना होगा। ताकि किसी और राज्य या केंद्र शासित प्रदेश पर उनकी अपनी जिम्मेदारियों का बोझ न पड़े। अन्यथा स्थिति और जटिल होती जाएगी और इन सब में पिसना पड़ेगा जनता बेचारी को।

दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन चिल्ला – चिल्ला कर कह रहे हैं कि दिल्ली में कोरोना का कम्युनिटी स्प्रैड हो चुका है। कोरोना मरीजों की संख्या हर दिन हजारों में बढ़ रही है। तो दूसरी ओर उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया 31 जुलाई तक दिल्ली में करीब साढ़े पांच लाख कोरोना के मामले होने की बात कर रहे हैं और ऐसे समय में उनकी सरकार को 80 हजार बेड की आवश्यकता होगी। ऐसे में दिल्ली से बाहर से आने वाले मरीज का इलाज कैसे हो सकेगा? जाने माने हृदय रोग विशेषज्ञ पद्मश्री डॉ. के के अग्रवाल भी बार – बार यह चेतावनी दे रहे हैं कि जुलाई महीने में भारत में कोरोना संक्रमण अपनी पीक (चरम) पर होगा। पर इन सब की बात मानता कौन है? कोई इनकी बातें सुनने को तैयार भी नहीं। आखिर क्यों इन लोगों की बातों को अनसुना किया जा रहा है? उनकी बातों को गंभीरता से क्यों नहीं लिया जा रहा है?

इस विषय पर केंद्र सरकार की चुप्पी कोरोना जैसी गंभीर महामारी की समस्या का कोई समाधान नहीं है। केंद्र सरकार को इस मामले में हस्तक्षेप करना चाहिए, ताकि स्थिति बिगड़ न जाए। उसे बिगड़ने से पहले सुधारा जा सके। पर केंद्र सरकार के पास समय कहां है? उसके मंत्री कुछ राज्यों के आगामी चुनाव के लिए वर्च्युअल रैलियां कराने में व्यस्त हैं। संकट के ऐसे समय में चुनाव जरूरी हैं या देश की जनता की हिफाजत? यह एक यक्ष प्रश्न है? जिसका जवाब शायद केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के पास भी नहीं है। राज्यों के चुनाव बाद में भी कराए जा सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब कह चुके हैं कि जान है तो जहान है, तो फिर वे देश की जनता की जान की परवाह क्यों नहीं कर रहे हैं? उनकी सरकार को दिल्ली की समस्या का हल जल्द से जल्द ढ़ूंढ़ना चाहिए, ताकि समय रहते इस मुद्दे पर कोई निर्णय हो सके अन्यथा स्थितियां बहुत ही भयावह और विस्फोटक हो सकती हैं।   

 लेखक :  वरिष्ठ पत्रकार, स्तंभकार एवं मीडिया विशेषज्ञ हैं.

गुरुवार, जून 11, 2020

जो कुछ करें - सब करें, सब मिलकर करें : बिस्मिल

शाहीन अंसारी

"सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है"

भारत की आज़ादी के आंदोलन में ये पंक्तियां क्रांतिकारियों का मशहूर नारा बनी। 1921 में बिस्मिल अज़ीमाबादी द्वारा   लिखी जोश-ओ-
खरोश से लबरेज़ इन पंक्तियों ने जिस स्वतंत्रता  आंदोलन के क्रांतिकारी को अमर बना दिया वो थे राम प्रसाद 'बिस्मिल'।  आज उस रणबांकुरे की जयंती है, जिसने फांसी के फंदे को हंसते-हंसते चूम लिया।
 राम प्रसाद 'बिस्मिल' भारत की आज़ादी  के आंदोलन की क्रांतिकारी धारा के एक प्रमुख सेनानी थे, जिन्हें 30 वर्ष की उम्र में ब्रिटिश सरकार ने फांसी दे दी। वे मैनपुरी षड्यंत्र व काकोरी कांड जैसी कई घटनाओं में शामिल थे तथा 'हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन' के सदस्य भी थे।
लेकिन बहुत ही कम लोग जानते हैं कि इस सरफ़रोश क्रांतिकारी के बहुआयामी व्यक्तित्व में संवेदनशील कवि/शायर, साहित्यकार एवं इतिहासकार के साथ एक बहुभाषाभाषी अनुवादक का भी निवास था। 'बिस्मिल' उनका उर्दू तख़ल्लुस (उपनाम) था। जिसका हिन्दी में अर्थ होता है 'आत्मिक रूप से आहत' । 'बिस्मिल' के अतिरिक्त वे 'राम' और 'अज्ञात' के नाम से भी लेख और कविताएं (शायरी) लिखते थे।

11 जून 1897 में उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में मुरलीधर और मूलमती के घर पुत्र के रूप में क्रांतिकारी राम प्रसाद 'बिस्मिल'  ने जन्म लिया। किशोरावस्था से ही उन्होंने भारतीयों के प्रति ब्रिटिश सरकार के क्रूर रवैये को देखा था।  इससे आहत बिस्मिल का कम उम्र से  ही क्रान्तिकारियों की तरफ़ झुकाव होने लगा।

उन्होंने 1916 में 19 वर्ष की उम्र में  क्रांतिकारी मार्ग पर क़दम रखा। बिस्मिल ने बंगाली क्रांतिकारी सचिन्द्र नाथ सान्याल और जदूगोपाल मुखर्जी के साथ मिलकर 'हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन' (HRA)की स्थापना की,  और भारत को अंग्रेज़ी शासन से आज़ाद करवाने की कसम खायी। उत्तर भारत के  इस संगठन के लिए बिस्मिल अपनी देशभक्त माँ मूलमती से पैसे उधार लेकर किताबें लिखते व प्रकाशित करते थे। 11 किताबें उनके जीवनकाल  में प्रकाशित हुयीं, जिनमें से एक भी गोरी सत्ता के कोप से नहीं बच सकी।   'देशवासियों के नाम' ,' स्वदेशी रंग',  'मन की लहर'और 
जयंती 11 जून पर देश का कृतज्ञ नमन
'स्वाधीनता की देवी' जैसी किताबें इसका उदाहरण हैं।  इन किताबों की बिक्री से उन्हें जो पैसा मिलता था उससे वो पार्टी के लिए हथियार  ख़रीदते थे। साथ ही उनकी किताबों का उद्देश्य  जनमानस के मन में क्रांति के बीज बोना था। ये वो ही समय था जब उनकी मुलाकात अन्य  क्रांतिकारियों  जैसे,  अशफ़ाक़ुल्लाह खान, रौशन सिंह व राजेन्द्र लाहिड़ी से हुई। आगे चलकर ये सभी क़रीबी दोस्त बन गए।  उन्होंने ही चंद्रशेखर 'आज़ाद' और भगत सिंह जैसे नवयुवकों को  'हिंदुस्तान रिपब्लिकन  एसोसिएशन'  से जोड़ा जो कि बाद में  'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन' बन गयी।

 कई क्रांतिकारियों के नाम जोड़ी में लिए जाते हैं।  जैसे- भगत सिंह-चंद्रशेखर आज़ाद और राजगुरु। ऐसे ही बिस्मिल की कहानी अशफ़ाक़ुल्लाह खान के ज़िक्र के बिना अधूरी है।  इसका कारण सिर्फ ये नहीं कि काकोरी कांड में ये दोनों मुख्य आरोपी थे । बल्कि एक जैसी सोच और सिद्धांत रखने वाले इन दोनों दोस्तों के दिल में देशभक्ति  का जज़्बा कूट-कूट कर भरा था। दोनों साथ रहते थे, साथ-साथ काम करते थे और हमेशा एक दूसरे का सहारा बनते।  दोनों एक दूसरे को जान से भी ज़्यादा चाहते थे।   दोनों ने एक साथ जान दे दी पर एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ा। बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में एक पूरा अध्याय अपने परम मित्र अशफ़ाक़ुल्लाह को समर्पित किया है।  इनकी दोस्ती की मिसाल  आज भी दी जाती है।

बिस्मिल हिन्दू-मुस्लिम एकता पर यकीन करते थे।
रामप्रसाद बिस्मिल के नाम के आगे 'पंडित' जुड़ा था। जबकि अशफ़ाक़ मुस्लिम थे। वो भी पंजवक्ता नमाज़ी। लेकिन इस बात का दोनों पर कोई फ़र्क़ नहीं  पड़ता था।  , क्योंकि दोनों का मक़सद एक ही था - 'आज़ाद मुल्क'  वो भी धर्म या किसी और  आधार पर हिस्सों में बंटा हुआ नहीं।
बिस्मिल कहते थे कि 'ब्रिटिश सरकार ने अशफ़ाक़ को राम प्रसाद का दाहिना हाथ क़रार दिया अशफ़ाक़ कट्टर मुसलमान हो कर पक्के आर्य समाजी राम प्रसाद बिस्मिल का क्रांतिकारी दाल का हाथ बन सकते हैं, तब क्या भारत की आज़ादी के नाम पर हिन्दू-मुसलमान अपने निजी छोटे-छोटे  फायदों के ख़्याल न करके आपस में एक नहीं हो सकते।' ये पंक्ति आज भी लोगों में बहुत मशहूर है।

राम प्रसाद बिस्मिल ने  कांग्रेस के 1920 में कलकत्ताऔर 1921 में अहमदाबाद में हुए अधिवेशनों में हिस्सा लिया।  बताते है कि अहमदाबाद के अधिवेशन में मौलाना हसरत मोहानी के साथ मिलकर कांग्रेस की साधरण सभा में 'पूर्ण स्वराज' का  प्रस्ताव पारित करवाने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और शाहजहांपुर लौटकर 'असहयोग आंदोलन ' को सफल बनाने में लग गए। लेकिन साल 1922 में चौरा-चौरी कांड के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस लेने का फैसला किया तो कई युवाओं को  उनके इस कदम से निराशा हुई। उनमे राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ भी थे। गांधी जी से मोहभंग होने के बाद ये सभी युवा क्रांतिकारी पार्टी में शामिल हो गए। इनका मानना  था कि मांगने से आज़ादी  मिलने वाली नहीं है। इसके लिए हमे लड़ना होगा।

बिस्मिल और अशफ़ाक़ दोनों ने साथ मिलकर  1925 को काकोरी कांड अंजाम दिया था। उन्हें महसूस हो गया था कि ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़  एक संगठित विद्रोह करने के लिए हथियारों की ज़रूरत है, जिसके लिए पैसों के साथ-साथ प्रशिक्षित लोगों की आवश्यकता भी होगी।  ऐसे में इस संगठन ने अंग्रेज़ सरकार की संपत्ति लूटने का निर्णय लिया। इसके तहत उन्होंने 9 अगस्त 1925 की रात को  अपने साथियों के साथ एक ऑपरेशन में काकोरी ट्रेन में ले जाया जा रहा सरकारी खज़ाना लूटा तो थोड़े ही दिन बाद 26 सितंबर 1925 को उन्हें और अशफ़ाक़ समेत उनके सभी साथियों को गिरफ़्तार कर लिया गया। उनपर मुक़द्दमा चलाया गया जो कि 18 महीने चला  और  चार  क्रांतिकारी - राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ुल्लाह खान, रौशन सिंह और राजेंद्र लाहड़ी को फांसी की सज़ा सुनाई गई। इन चारों को अलग-अलग जेलों में बंद कर दिया गया। बाक़ी सभी क्रांतिकारियों को लंबे समय के लिए कारावास की सज़ा मिली।
लखनऊ सेंट्रल जेल के बैरक नंबर 11 में जेल की सज़ा काटते हुए बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा लिखी।  बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा के अंत में देशवासियों से एक अंतिम विनय किया था ,  'जो कुछ करें सब करें, सब मिलकर करें और सब देश की भलाई के लिए करें। इसी से देश का भला होगा।'  इस आत्मकथा को प्रसिद्ध  पत्रकार गणेश शंकर  विद्यार्थी ने 'काकोरी के शहीद' के नाम से उनके शहीद होने के बाद1928 में छापी थी। अपनी सज़ा के दौरान ही बिस्मिल ने,
 "मेरा रंग  दे बसन्ती चोला...
  माय रंग दे बसंती चोला...
 गीत की रचना की।  ये गीत भी आज़ादी के आंदोलन के मशहूर गीतों में से एक है।

ज़िन्दगी भर दोस्ती निभाने वाले अशफ़ाक़ और बिस्मिल  दोनों को 19 दिसम्बर 1927 को अलग-अलग जगह फांसी दी गयी। अशफ़ाक़ को फैज़ाबाद में और बिस्मिल को गोरखपुर में। फांसी पर चढ़ने से पहले बिस्मिल ने आख़री ख़त अपनी माँ को लिखा। होंठों पर  जयहिंद का नारा लिए मौत को गले लगाने वाले इन क्रांतिकारियों को पूरे देश ने नम आंखों से विदाई दी। भारत मां  के इन  वीर बेटों को श्रद्धांजलि देने के लिए सैंकड़ों  भारतीयों की भीड़ उमड़ी। बिस्मिल और अशफ़ाक़ दोनों ने साथ-साथ दुनिया को अलविदा कहा और साथ ही अपनी दोस्ती भी ले गए।

"ऐ शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार,
  अब तेरी हिम्मत की चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है"।


लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता एवं सेन्टर फ़ॉर हार्मोनी एंड पीस, वाराणसी की निदेशक हैं

गिरीश कर्नाड को याद करते हुए : कुछ पल गिरीश के साथ


 डॉ. मोहम्मद आरिफ

बात 1990 के दशक की है जब मैं प्रो.इरफान हबीब के एक आमंत्रण पर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहास,उच्च अध्धयन केंद्र में एक माह की विज़िटर्शिप के लिए गया हुआ था.इत्तफाक से उन्हीं दिनों गिरीश जी भी अपने एक नाटक को
जीवंत और तथ्यपरक बनाने के लिए प्रो. हबीब के पास आये हुए थे. इरफान साहब ने  मेरा परिचय बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के नौजवान इतिहासविद् और कम्युनिज्म तथा कांग्रेसियत के अद्भुत समावेशी व्यक्तित्व के रूप में कराया तो कर्नाड ने मुस्कुराते हुए कहा कि ये diversity / विविधता पर तो कब की जंग लगनी शुरू हो चुकी है तुम किस दुनिया से आये हो भाई।और फिर एक लंबी सांस खींचते हुए कहा कि हां समझ में आ गया ग़ालिब भी तो आपके शहर में जाकर गंगा स्नान करके इसी समावेशी तहजीब/ diversity का शिकार हो चला था और दारा शिकोह वली अहद से इंसान बन बैठा था.
   इतिहास की उनकी समझ बहुत व्यापक थी .अजीब अजीब सवाल उनके मन में उभरते थे एक एक्टिविस्ट की तरह.वाकई उनका पूरा जीवन ही एक्टिविज्म करते बीता. व्यवस्था के खिलाफ उनका संघर्ष मित्र और अमित्र में भेद नहीं करता था. वे तो सिर्फ बेहतर समाज बनाने और विरासत को बचाये रखने वाले अपराजित योद्धा थे. माध्यम कभी कविता, संगीत ,कभी नाटक, कभी अभिनय तो कभी सामाजिक सरोकारों के विभिन्न मंच रहे जहां वे निर्भीक खड़े होकर हम जैसे अनेक लोगों का मार्गदर्शन करते रहे.
     उनका इतिहास को देखने का नज़रिया वैज्ञानिक और खोजी था.चलते चलते उन्होनें मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा कि एक मुलाकात आपसे शाम की तन्हाई में होनी चाहिए, आपको भी कुछ जान परख लेते है.मैने  कहा कि सर इरफान साहब से तथ्य आधारित बातचीत के एक लंबे दौर के बाद बचता ही क्या है बताने के लिए,और मैं भी तो इरफान साहब का एक अदना सा विद्यार्थी हूँ.
   गिरीश जी ने मुस्कुराते हुए कहा भाई इतिहासकार तथ्यों की मौलिकता को बचाये रखते हुए अपनी परिस्थितियों और वातावरण के अनुकूल व्याख्या करता है.आपके शहर और आपके उस्तादों के नजरिये ने आपको इतिहास देखने परखने की जो दृष्टि दी है वो दृष्टिकोण भी हमारे लिए बहुत मायने रखता है. सहमति के बाद देर रात्रि तक उस दिन एकांत चर्चा चलती रही. कर्नाड जी मुहम्मद तुग़लक़, कबीर,अकबर, औरंगजेब और बहादुर शाह जफर के बारे में तमाम जानकारियों पर बहस करते रहे. उन्हें गांधी, नेहरू, इंदिरा गांधी, अन्नादुरई और देवराज अर्स में भी दिलचस्पी थी. उनका इतिहास ज्ञान अदभुत था और जिज्ञासा तो शांत ही नहीं होती थी।कई बार अनुत्तरित भी कर देते थे. शंकराचार्य, बनारस, कबीर और रैदास के नजरिये की अद्भुद व्याख्या गिरीश ने की और ऐसा लगा कि बनारस में रहकर मैं बनारस से कितना दूर हूँ और दूर रहकर भी गिरीश कितना नजदीक.
पुण्य तिथि (10 जून) पर विशेष
ग‍िरीश कर्नाड की लेखनी में ज‍ितना दम था, उन्होंने उतने ही बेबाक अंदाज में अपनी आवाज को बुलंदी दी. तमाम राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भूमिका के साथ- साथ धर्म की राजनीति और भीड़ की हिंसा के प्रतिरोध में भी कर्नाड ने हिस्सा लिया. कर्नाड ने सीन‍ियर जर्नल‍िस्ट गौरी लंकेश की मर्डर पर बेबाक अंदाज में आवाज उठाई. गौरी लंकेश के मर्डर के एक साल बाद हुई श्रद्धांजलि सभा में वे  गले में प्ले कार्ड पहनकर  पहुंचे थे जबकि उनके नाक में ऑक्सीजन की पाइप लगी थी.
  गिरीश कर्नाड सामाजिक वैचारिकता के प्रमुख स्वर थे.उन्होंने अपनी कृतियों के सहारे उसके अंतर्विरोधों और द्वन्द्वों को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया है. उनकी अभिव्यक्ति हमेशा प्रतिष्ठानों से टकराती रही हैं चाहे  सत्ता प्रतिष्ठान हो या धर्म प्रतिष्ठान. कोई भी व्यक्ति जो गहराई से आम आदमी से जुड़ा हुआ हो उसका स्वर प्रतिरोध का ही स्वर रह जाता है क्योंकि सच्चाई को उकेरने पर इन प्रतिष्ठानों को खतरा महसूस होता है.  गिरीश कनार्ड अब हमारे बीच नहीं हैं परन्तु उन्होंने जिन्दगी को जिस अर्थवान तरीके से बिताया वह हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत है.
    अलीगढ़ से वापसी के बाद हम सब अपनी अपनी दुनिया में लौट आये और खो गए पर, मजेदार बात ये रही कि गिरीश जी को ये बात याद रही. जब 1994-95 के दौरान दिल्ली में तुग़लक़ नाटक का मंचन होने वाला था तो एक दिन उनका फोन आया और मैं चौंक पड़ा क्योंकि उन दिनों मेरे पास फोन नहीं था और मैं अपने पड़ोसी सज्जन के लैंडलाइन फोन पर सन्देश मंगाया करता था. उन्होंने न केवल हमारा सम्पर्क सूत्र पता किया बल्कि सम्मानजनक ढंग से हमें आमंत्रित करना न भूले. ये थी उनकी रिश्तों की समझ.
  आज हम ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जब इतिहास के तथ्य रोज तोड़े मरोड़े जा रहे है और अप्रशिक्षित राजनीतिक हमें इतिहास पढ़ा रहे हैं, गिरीश तुम्हारा होना नितांत आवश्यक था. तुम चले गए और हमें ये जिम्मेदारी देकर कि हम इतिहास की मूल आत्मा को मरने न दें.बड़ा गुरुतर भार देकर और अपनी पारी बेहतरीन और खूबसूरत खेलकर गए हो. उनके जाने से खालीपन का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि समकालीन कला जगत में उनके आसपास तो कोई है भी नहीं.इस खाली जगह को भरना आसान नहीं दिखता. गिरीश इतिहास सदैव तुम्हे याद रखेगा.

लेखक जानेमाने इतिहासकार और सामाजिक कार्यकर्ता है. सम्पर्क :9415270416

मंगलवार, जून 09, 2020

जौनपुर में सदर अस्पताल भी हुआ कोरोना संक्रमित

  जौनपुर। जिला अस्पताल में तैनात चिकित्सक डॉ डी एस यादव के कोरोना पॉजिटिव  पाए जाने के बाद ओपीडी सेवाएं बंद कर दी गई तथा पूरे हॉस्पिटल को सिनेटाइज कराया जा रहा है। आकस्मिक सेवाओं को छोड़कर अन्य सेवाएं ठप हैं। डॉ यादव की रिपोर्ट कोरोना पॉज़िटिव आने के बाद उनके संपर्क में आये सभी लोगों के हाथ पांव फूलने लगे हैं।
 अस्पताल से लेकर सम्पर्क में आये लोगों के घर तक हड़कम्प मचा हुआ है। डॉ यादव  कोरोना काल में अस्पताल के सबसे सक्रिय चिकित्सक माने जाते हैं। वे शाहगंज सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र स्थित अपने सरकारी आवास पर भी प्रतिदिन सैकड़ों मरीजों का इलाज करते थे। इसी के चलते उनके सम्पर्क में आने वाले सभी लोगों में भय व्याप्त हो गया है। इस सम्बंध में किसी से भयभीत न होकर
 प्रभारी चिकित्साधिकारी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र सोंधी डॉ रमेश चन्द्रा ने बताया कि किसी को भी भयभीत होने की ज़रूरत नहीं है। डॉ यादव के संपर्क में आये हुए लोग स्वतः होम क्वारन्टीन हो जायें। सप्ताह भर के अन्दर सभी संपर्क में आये हुए लोगों की सैम्पलिंग होगी। तत्काल सैंपलिंग से
फोटो सौजन्य : बृजेश विश्वकर्मा भोले/ आशीष श्रीवास्तव
लक्षण नहीं दिखाई देंगे। सप्ताह भर बाद सैम्पलिंग करने से लक्षण दिखाई देने लगेंगे और सभी संपर्क में आये हुए लोग अपनी जानकारी स्वास्थ्य विभाग को दें जिससे उनकी सैम्पलिंग हो सके। सम्पर्क में आये लोग किसी और के संपर्क में न आयें। लोगों से उचित दूरी बनाकर स्वत: को होम क्वारन्टीन कर लें।

दूसरी तरफ डीएम जौनपुर दिनेश कुमार सिंह ने बताया कि आज  9 जून को 1359 सैंपल के रिजल्ट आये। 7 मरीज आज ठीक  हुए हैं तथा 44 नए पॉजिटिव आए हैं। 1258 नेगेटिव हैं 44 पाज़िटिव है 50 resampling के हैं। आज जो 44 पॉजिटिव आए हैं उनमें 41 मुंबई के  है,1 सूरत का है 1 दिल्ली का है और एक दादर नगर हवेली का। इन 41 को मिलाकर के अब तक 328 में तक 290 लोग ऐसे हैं जो मुंबई से आए श्रमिक हैं। आज 7 लोग और ठीक हो गये हैं। 121लोग पहले ही ठीक हो चुके हैं ,31  लोग 8 जून को ठीक हुए थे । अब तक  कुल 159 ठीक हो चुके हैं।तीन की मृत्यु हो चुकी हैं, 166लोगों का इलाज आज की तारीख में चल रहा है। जिसमें 163 लोग पूर्वांचल विश्वविद्यालय के हॉस्टल में स्थापित एल-1 समकक्ष अस्पताल में हैं तथा 3 लोग बनारस में । आज 137 नए लोगों के भी सैंपल  लिये गये। आज के 137 सैंपल मिलाकर अब तक कुल 7138 लोगों के नमूने लिए जा चुके हैं और 5839 लोगों की रिपोर्ट प्राप्त हो चुकी है,  1299 नमूनों के रिजल्ट आने शेष हैं। जो केसेस पॉजिटिव आए हैं उनमें 26 ठीक हो कर घर जा चुके थे और 54 कोरोना पॉजिटिव लोग 30 मई को ठीक हुए हैं और उनको स्वस्थ घोषित करके घर भेज दिया गया था। कल और 9 पेशेंट 31मई को ठीक हो गये थे।1जून को 5 और ठीक हो गए । 2 जून को 1 कोरोना पॉजिटिव मरीज ठीक हो गया । 3 जून को 15 लोग और  ठीक हो गए। 4 जून को एक पेशेंट और ठीक हो गया है, 6 जून को 10 लोग ठीक हो गए हैं 8 जून को 31 ठीक होकर घर गये तथा साथ आज 9 जून को 7 ठीक हो कर घर गए। 328 केसेस में 290 केस मुंबई से आए हुए लोगों के हैं,अहमदाबाद से आए हुए 4 और सूरत से आए हुए 5 लोग ,दिल्ली एनसीआर से आये हुए 18 लोग,देवबंद से आया हुआ 1 व्यक्ति, वाराणसी से आए हुए 1 व्यक्ति। मुम्बई ,गुजरात से आए हुए लोगों पर सतर्क दृष्टि रखी जा रही है और जितने लोगों में लक्षण है या या संदिग्ध प्रतीत होते हैं उनका सैंपल लिया जा रहा है उन्हें अलग कर दिया जा रहा है, जिससे कि संक्रमण अन्य लोगों में न फैल सके।

वरिष्ठ पत्रकार पंडित लालजी मिश्र का प्रयाण

देश की औद्योगिक राजधानी मुंबई में हिन्दी पत्रकारिता के आधार स्तम्भों में से एक रहे पंडित लालजी मिश्र हमारे बीच नहीं रहे। उन्होंने नवभारत टाइम्स के मुंबई संस्करण में चार दशक तक अपनी सेवाएं दीं तथा शहर संपादक के पद से सेवानिवृत्त हुए थे। सेवानिवृत्ति के बाद वे पुस्तक लेखन में जुट गए। पंडित लालजी मिश्र का निधन सोमवार देर रात्रि को हुआ। उन्होंने मुंबई में सानपाड़ा(नवी मुंबई) स्थित
अपने निवास स्थान पर अंतिम सांस ली। वह 85 वर्ष के थे। पंडित लालजी मिश्र जौनपुर जिले के बरपुर बेलहटा (लेदुका) गाँव के मूल निवासी थे। पिछले दिनों आपरेशन के बाद उन्हें दो बार अस्पताल में एडमिट करना पड़ा था। वह लॉक डाउन के दौरान अधिक अस्वस्थ हो गए थे।
    सेवानिवृत्ति के बाद वह स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं स्तम्भकार के रूप में कलम की सेवा कर रहे थे।  उन्होंने कई किताबें भी लिखीं। जिसमें एक पत्रकार की अनुभव यात्रा, छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप तथा अपने पैतृक गांव बरपुर बेलहटा के समीप राउर बाबा सिद्ध स्थल के महात्म्य पर लिखी शोधपरक किताबें प्रमुख हैं। वह मुंबई में उत्तर भारतीयों के बीच बेहद ही लोकप्रिय थे।  मुंबई में उत्तर भारतीयों की राजनीति में उनका खास दखल था। वहाँ राजनैतिक पार्टियों में सक्रिय किसी भी दल का उत्तर भारतीय राजनेता बिना उनके आशीर्वाद के अपना भविष्य उज्ज्वल नहीं मानता था। मुंबई के सभी मीडिया हाउस में उनका बेहद सम्मान था। उनके सानिध्य में अपनी पत्रकारिता शुरू करने वाले सैकड़ों पत्रकार आज मुंबई के अनेक मीडिया हाउस में अपनी सेवाएं दे रहे हैं।  पंडित लालजी मिश्र का निधन मुंबई की हिंदी पत्रकारिता की अपूरणीय क्षति है।
   स्व. मिश्र अपने पीछे दो पुत्र अमरनाथ मिश्र, रविन्द्र नाथ मिश्र और दो पुत्रियों ममता शुक्ला और सुनीता पांडेय सहित आठ नाती पोतों का भरा पूरा परिवार छोड़ गए हैं। उनके ज्येष्ठ पुत्र अमर नाथ मिश्र पहले नवभारत टाइम्स (दिल्ली) और फिर बाद में नवभारत (मुंबई) से जुड़े रहे। गत वर्ष सितंबर 2019 में उनकी पत्नी हीरावती देवी का निधन हो गया था। उनके दो छोटे भाई डीएन मिश्र और प्राणेंद्र मिश्र भी मुंबई में ही रहते हैं।
    उनका अंतिम संस्कार मंगलवार को सुबह मुंबई में ही किया गया। उनके निधन की खबर सुनते ही मुंबई के पत्रकारिता जगत में शोक की लहर दौड़ गई। मुंबई के पत्रकारों ने लालजी मिश्र के निधन पर शोक प्रकट करते हुए उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की है।

सोमवार, जून 08, 2020

धृतराष्ट्र क्यों बनी हुई है शिवसेना ?

मजदूरों के मददगार सोनू सूद की आलोचना कर खुद फंसी पार्टी


राकेश दुबे

    अपनी नाकामी छिपाने के लिए दूसरों पर आरोप – प्रत्यारोप करना शिवसेना की पुरानी आदत है।
फिर वह मुंबई महानगर पालिका के कामकाज या वहां के क्रियाकलापों के विषय की बात हो अथवा सत्ताधारी सरकार के कामकाज की। वह हमेशा से ऐसा ही करती आई है। तभी तो फिल्म अभिनेता सोनू सूद के बारे में शिवसेना की हालिया टिप्पणी उसे धृतराष्ट्र की भूमिका में खड़ा करती है। सोनी सूद फिल्मों में विलेन का रोल भले ही करते हों, मगर असल जिंदगी में वे मजदूरों के मसीहा हैं। मसीहा वह इसलिए बन गए, क्योंकि कोविड – 19 काल में लॉकडाउन के समय जब मुंबई के मजदूरों की सुध लेने वाला कोई नहीं था, ऐसे में सोनू ने अपने खर्चे से उन मजदूरों के लिए बसों की व्यवस्था की, ताकि वे बिना किसी परेशानी के आराम से अपने गांव पहुंच सकें। इस सहायता और दरियादिली के लिए वे मजदूरों के महात्मा बन गए हैं। मजदूर उन्हें महात्मा कह कर पुकारने लगे हैं। सोनू की इसी महात्मा वाली लोकप्रियता से महाराष्ट्र की सत्ताधारी पार्टी शिवसेना बहुत परेशान है। महात्मा वाली बात शिवसेना के गले नहीं उतर रही। अपनी सरकार की नाकामी छिपाने के लिए अब वह सोनू पर बीजेपी कनेक्शन का आरोप लगा रही है।

शिवसेना के मुखपत्र में सोनू पर निशाना साधते हुए लिखा गया – कोरोना वायरस के दौरान लॉकडाउन में एक नए महात्मा आ गए हैं, जिसे लोग सोनू सूद कहते हैं। ऐसा कहा जा रहा है कि इस एक्टर ने लाखों प्रवासियों को उनके अपने राज्यों में भेजा है तो क्या इसका मतलब यह है कि केंद्र और राज्य सरकारें प्रवासियों को भेजने के लिए कोई काम नहीं कर रही हैं। मुखपत्र में यह भी सवाल उठाया गया कि जब राज्य सरकारें प्रवासियों को आने नहीं दे रही हैं तो फिर इतने लोग जा कहा रहे हैं।

शिवसेना सांसद संजय राउत की इन बातों पर जब आलोचना के स्वर मुखर हुए तब राउत ने सफाई देते हुए कहा कि सोनू सूद एक अच्छे कलाकार हैं और उन्होंने अच्छा काम किया है। पर राउत ने एक बार फिर कहा कि जिस तरह फिल्मों में हर एक्टर के पीछे डायरेक्टर होते हैं, ऐसे में हो सकता है कि सोनू के इस काम के पीछे कोई पॉलिटिकल डायरेक्टर हो। उनका इशारा साफ था कि सोनू को इस काम के लिए भाजपा ने प्रायोजित किया है। हालांकि इस मसले पर सोनू सूद ने मातोश्री जाकर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से मुलाकात की और उनसे कहा कि वे आगे भी प्रवासी मजदूरों की इसी तरह सहायता करते रहेंगे। संजय राउत के इस बयान की आलोचना करते हुए शिवसेना के पूर्व सांसद और मौजूदा कांग्रेस नेता संजय निरुपम ने कहा कि लॉकडाउन के समय मजदूरों की मदद करने में शिवसेना और उसकी सरकार पूरी तरह से फेल साबित हुई है। ऐसे में जब सोनू सूद एक भगवान की तरह लोगों की मदद के लिए आगे आए तो उनकी तारीफ करने की जगह आलोचना की जा रही है, यह बेहद दुखद है। महाराष्ट्र के राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी भी सोनू के काम की प्रशंसा कर चुके हैं और उन्हें हरसंभव सहयोग का आश्वासन भी दिया था।

बता दें कि कोरोना संक्रमण में लॉकडाउन के समय महाराष्ट्र खासकर मुंबई से पलायन कर रहे मजदूर जब अपने परिवार के साथ गांवों के लिए पैदल ही चल पड़े, यह दृश्य देखकर उस समय किसी का दिल नहीं पसीजा। सोनू सूद को मजदूरों की इस दुर्दशा ने झकझोर कर रख दिया। ऐसे समय में उन्होंने मजदूरों की व्यक्तिगत तौर पर मदद की। उन्होंने मजदूरों को बसों से उनके घर भिजवाया। उसका सारा खर्चा खुद वहन किया। आज भी वे अपनी तरफ से मजदूरों की सहायता में हरसंभव प्रयासरत हैं।
शहीद – ए – आजम के भगत सिंह और दबंग के छेदी सिंह से फिल्मों में मशहूर अभिनेता सोनू सूद पंजाब में मोगा के रहने वाले हैं। सोनू ने हिन्दी, तेलुगू, कन्नड़ और तमिल फ़िल्मों में अभिनय किया है। शहीदे-ए-आजम, युवा, चंद्रमुखी, आशिक बनाया आपने, जोधा अकबर, सिंह इज किंग, एक विवाह ऐसा भी, अरूंधति, दबंग, बुड्ढा होगा तेरा बाप, शूटआऊट एट वडाला, रमैया वस्तावैय्या, आर राजकुमार, इंटरटेनमेंट, हैप्‍पी न्‍यू ईयर, गब्‍बर इज बैक, दबंग 3 जैसी फिल्मों में अपनी भूमिका का लोहा मनवाने वाले सोनू इलेक्‍ट्रानिक्‍स इं‍जीनियर हैं। सोनू का जन्‍म लुधियाना, पंजाब में हुआ था। उनके पिता एक एंटरप्रेन्‍योर तो उनकी मां अध्‍यापिका थीं। उनका बैकग्राउंड फिल्‍मों से नहीं रहा है, इसके बावजूद उन्‍होंने फिल्‍मों को ही अपना कैरियर बनाया और इसमें वे सफल भी हुए।