सोमवार, नवंबर 27, 2017

जौनपुर के डॉक्टर विवेक तेहरान में


       जौनपुर के डॉक्टर विवेक तेहरान में

प्रथम इंटरनेशनल एक्स्ट्रा कार्पोरियल लाइफ  सपोर्ट कांग्रेस में विशिष्ट अतिथि के तौर पर भागीदारी

   ईरान की राजधानी तेहरान में  हो रही तीन दिवसीय प्रथम इंटरनेशनल एक्स्ट्रा कारपोरेशन लाइफ सपोर्ट कांग्रेस में शिरकत करने के लिए जौनपुर के मूल  निवासी एवं वरिष्ठ क्रिटिकल केयर विशेषज्ञ डॉक्टर विवेक गुप्ता तेहरान गए हैं। वह इस कांग्रेस में बतौर विशिष्ट अतिथि शिरकत करेंगे। इस सम्मेलन में जीवन रक्षा प्रणाली "एक्मो " पर विशेष चर्चा होगी। "एक्मो "  ऐसा उपकरण है जो अति विषम परिस्थितियों में जीवन रक्षा के लिए
प्रयोग किया जाता है। इस प्रणाली द्वारा शरीर के रक्त  में ऑक्सीजन की कमी को पूरा किया जाता है। चिकित्सा के दौरान रक्त शरीर से निकलकर इस उपकरण में जाता है जहां आवश्यक ऑक्सीजन की पूर्ति कर उसे  पुनः शरीर में लौटा दिया जाता है। हार्ट अटैक, ऑपरेशन या फिर एक्सीडेंट के बाद रक्त में ऑक्सीजन की कमी से जान पर खतरा बनता है, उस समय यह जीवन रक्षा प्रणाली बहुत कारगर सिद्ध होती है। एक्मो द्वारा शरीर के हृदय एवं  फेफड़े दोनों या फिर किसी एक से भी रक्त निकालकर और उसे ऑक्सीजनाइज्ड कर पुनः शरीर में लौटाया जा सकता है। गत वर्ष डॉ. विवेक गुप्ता ने इस "एक्मो " का अभिनव प्रयोग करते हुए प्राणघातक सल्फास के विष को निष्क्रिय बनाते हुए इस जीवन रक्षा पद्धति की खोज किया था। यह खोज फास्फीन गैस से प्रभावित होने वाले जीवन की रक्षा के लिए वरदान सिद्ध हुई। प्राणघातक सल्फास में मूलतः फास्फीन ही होती है । ईरान में फास्फीन प्रभावित मरीजों की तादाद दुनिया में सबसे ज्यादा है। डॉक्टर गुप्त द्वारा खोजी गई इस प्रणाली का ईरान द्वारा व्यावसायिक स्तर पर प्रयोग किया जा रहा है। अपने तेहरान प्रवास के दौरान डॉक्टर गुप्त इसी "एक्मो" पर कई व्याख्यान देंगे । पूरी दुनिया से एकत्र हुए क्रिटिकल केयर विशेषज्ञों के समक्ष इस मशीन के अतिरिक्त उपयोगों को लेकर भी चर्चा होगी। विशेष रुप से इसके ज्यादा प्रभावी प्रयोग की संभावनाएं तलाशी जाएंगी। संप्रति  डॉक्टर विवेक गुप्ता हीरो डीएमसी हार्ट सेंटर लुधियाना में कार्यरत हैं और "जौनपुर समाचार" हिन्दी दैनिक के सम्पादक महेन्द्र के अनुज हैं। 

रविवार, नवंबर 12, 2017

कचरे पर आकार लेती शहर की भव्यता

कचरे पर आकार लेती शहर की भव्यता
                 अरविंद उपाध्याय
  जौनपुर शहर तेजी से विकसित हो रहा है। आलीशान भवन और बड़े - बड़े काम्प्लेक्स खड़े किए जा रहे हैं। इन नई इमारतों में पनप रहा नये तरह का बाजार कुछ नया और कुछ अलग जीवन शैली परोस रहा है। यह नयापन शहर को तेजी से
आधुनिक स्वरूप में तब्दील कर रहा है। देखने में यह भव्यता बेहद आकर्षक लगती है लेकिन इसकी नींव जिस कचरे के ढेर पर टिकी हुई है वह खतरे की घंटी बजा रहा है। नींव के नीचे पटा हुआ कचरा आगे  कितनी समस्याएं खड़े करेगा इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
   फैलाव हेतु मुख्य मार्गों तथा शहर के आसपास की गड्ढों वाली या ऊबड़ - खाबड़ भूमि को कचरे से पाट दिया जाता है। फिर समतलीकरण कर वहाँ मकान, सड़कें एवं व्यावसायिक भवन या
काम्प्लेक्स आदि बनाए जाते हैं। हर तरह के अपशिष्टों की डंपिंग करके तैयार किए गए बेशुमार कचरा मैदानों पर आलीशान इमारतें एवं रहवासी
क्षेत्र बन गए हैं। विकास की यह अनोखी लेकिन चिन्ताजनक प्रक्रिया लगातार गति पकड़ रही है। मिट्टी खनन पर लगी नकेल ने कचरे को एक सहज और सस्ते विकल्प की मान्यता दे दी है।
  शहर के कचरे की डंपिंग के लिए उपयुक्त एवं पर्याप्त जगह नहीं होने के कारण शहर में ही कई जगहों पर सूखे - गीले कचरे और बायो मेडिकल वेस्ट के साथ ही जानवरों के शव तक को फेंक दिया जा रहा है। इससे  उधर से गुजरने वालों को बदबूदार व दूषित वातावरण का सामना करना
होता है। राहगीरों तथा इलाके के लोगों ने बताया कि कचरा डंप करने के बाद उससे उठती बदबू से उनका रोजमर्रा की जिंदगी प्रभावित हो रही है। वाराणसी - लखनऊ राजमार्ग पर वाजिदपुर क्षेत्र से लेकर पंचहटिया तक का समूचा आजमगढ़ बाईपास मार्ग इससे बुरी तरह प्रभावित है।
   शहरी कचरे के पृथक्करण (कचरे की प्रकृति के  अनुसार अलग-अलग करना) की उचित व्यवस्था नहीं होने से शहरी कचरे में घरों और कार्यशालाओं से निकला अपशिष्ट, दवाखानों की गन्दगी, प्लास्टिक, थर्मोकोल एवं बेकार इलेक्ट्रॉनिक उपकरण (ई-वेस्ट) भी होते हैं। गड्ढ़ों के भराव के समय डाला गया कचरा बगैर किसी रासायनिक या
अन्य प्रकार के उपचार के डाल दिया जाता है।डम्प किए गए मिश्रित कचरे में उपस्थित विभिन्न प्रकार के रसायन परस्पर सम्पर्क में आकर कई प्रकार की रासायनिक क्रियाएँ करते हैं। इनके फलस्वरूप कई प्रकार की विषैली एवं बदबूदार गैसें पैदा होने लगती हैं। जिन्हें 'लैंडफिल गैस' कहा जाता है। इन गैसों में हाइड्रोजन सल्फाइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, मिथेन तथा सल्फर डाई ऑक्साइड प्रमुख होती हैं।

यह लैंडफिल गैसें मानव स्वास्थ्य एवं भूजल के साथ ही इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों पर विपरीत प्रभाव डालती है। लैंडफिल गैसों के प्रभाव से एक वर्ष चलने वाले कम्प्यूटर व सर्वर आदि 2-3 माह में ही खराब होने लगते हैं। कचरा मैदान पर बने भवनों में स्थापित कम्प्यूटर, लैपटॉप, एसी, टीवी, प्रिंटर तथा अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की कार्य प्रणाली में गड़बड़ी देखी गई है। मनुष्यों में भी इन गैसों के सम्पर्क में आने पर दमा, श्वसन, त्वचा व एलर्जी रोग बढ़े हैं। महिलाओं में मूत्राशय के कैंसर की सम्भावना भी बताई गई है। भूजल में नाइट्रेट की मात्रा बढ़ने का एक कारण ये गैसें भी बताई गई हैं।

  मिश्रित कचरे में मौजूद पॉलीथिन/ प्लास्टिक  कचरे से पशु-पक्षी मौत का ग्रास बन रहे हैं। लोगों में तरह-तरह की बीमारियां फैल रही हैं, जमीन की उर्वरा शक्ति नष्ट हो रही है तथा भूगर्भीय जलस्रोत दूषित हो रहे हैं। पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार, प्लास्टिक कचरे के जमीन में दबने की वजह से वर्षा जल का भूमि में संचरण नहीं हो पाता। जिसके असर से भूजल स्तर गिरने लगता है। साथ ही यह पूरे पर्यावरण चक्र को असंतुलित कर देता है। प्लास्टिक के ज्यादा संपर्क में रहने से लोगों के खून में थेलेट्स की मात्रा बढ़ जाती है। इससे गर्भवती महिलाओं के गर्भ में पल रहे शिशु का विकास रुक जाता है और प्रजनन अंगों को नुकसान पहुंचता है। प्लास्टिक उत्पादों में प्रयोग होने वाला बिस्फेनॉल रसायन डायबिटीज एवं  लिवर एंजाइम को असामान्य कर देता है।
   शहर के प्राइवेट अस्पताल, क्लीनिक, नर्सिंग होम, पैथोलॉजी व एक्स-रे स्टोर से निकले वाला मेडिकल वेस्ट भी  सड़कों के किनारे व नजदीकी खुले मैदानों में फेंका और जलाया भी जा रहा है। इससे स्वास्थ्य और पर्यावरण पर बुरा असर पड़ रहा है।          
बायो-मेडिकल वेस्ट तीन तरह के होते हैं। पहला प्लास्टिक बायो-मेडिकल वेस्ट जिसमें सभी इंजेक्शन के खोल,दवाइयों के कवर, प्लास्टिक बोतलें इत्यादि आते हैं। दूसरा शॉर्प्स बायो-मेडिकल जिसमे सभी धारदार चीजें जैसे सिरिंज, चाकू, ब्लेड, शीशे के टूटे-फूटे टुकड़े और निडिल्स इत्यादि आते हैं। तीसरा ह्यूमन एनाटोमिकल वेस्ट जिसमें टिश्यू, और बॉडी पार्ट्स आते हैं।
 मेडिकल कचरे से निमोनिया, हैजा, कालरा, डेंगू, स्वाइन फ्लू, मेनेंजाइटिस, हेपेटाइटिस-बी व कैंसर जैसी बीमारियां हो सकती है। इसके अलावा मवेशी भी इस चिकित्सीय कचरे को भी खा लेते हैं, इससे उनके शरीर में इंफेक्शन होता है और धीरे-धीरे वे दम तोड़ देते हैं। जमीन में दबे मेडिकल वेस्ट भूजल को संक्रमित करते हैं। इससे पर्यावरण को भारी नुकसान होने के साथ ही बीमारियां फैलने की सदैव आशंका रहती है।
  वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर बनाए कुछ नियमों के अनुसार समुचित कचरा प्रबंधन के बाद उपचारित कचरा ही भराव के लिए उपयुक्त है। कचरे से पाॅलीथिन समेत प्लास्टिक एवं हानिकारक मेडिकल वेस्ट अलग किया जाना जरूरी है। कचरा भराव तथा समतलीकरण के बाद भवन निर्माण या बसाहट के कार्य 15 वर्ष के बाद किये जाने चाहिए। इस अवधि में कचरे के सड़ने सेे पैदा लैंडफिल गैसेें उत्सर्जित हो बाहर निकल कर वायुमण्डल में मिल जाती हैंं। ऐसा नहीं हो रहा है इसलिए इसके गंभीर परिणामों के लिए हमें  तैयार रहना होगा।
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