रविवार, सितंबर 03, 2017

कारोबार पर अब सिक्के के विनिमय का संकट

  नोटबन्दी के बाद अब बाजार सिक्कों के विनिमय के एक बड़े संकट से त्रस्त है। बाजार में नोट से अधिक सिक्के प्रचलन में हैं और यही मौजूदा समस्या का वास्तविक कारण है। हालात यह हैं कि जौनपुर समेत पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश में कारोबार का पहिया सामान्य गति से भी नहीं चल पा रहा है। 'नो क्वायंस' की सुनामी ने ग्राहक, व्यापारी और बैंकर्स से जुड़े पूरे सिस्टम को औंधे मुँह गिरा दिया है। हाल-फिलहाल तो  सारी कोशिशें नाकाम हैं और समस्या दूर होने के आसार नहीं दिखाई दे रहे हैं।
  आम उपभोक्ता अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए जब बाजार जाता है तो हर बार इस समस्या से  उसका साबका पड़ रहा है। दुकानदार सामान का मूल्य सिक्कों के रूप में लेने से परहेज करता है लेकिन  वापस की जाने वाली राशि सिक्कों के रूप में देना चाहता है। खरीददार भी ऐसा ही करने की कोशिश करता है। लेनदेन की इस प्रक्रिया में अक्सर ग्राहक और व्यापारी के बीच अप्रिय स्थितियाँ पैदा हो जा रही हैं। सहज उपलब्ध 'डायल 100' का इस्तेमाल करके इसकी पुलिस से शिकायत करना आम बात हो गई है। समर्थ लोग तो सीधे आला अफसरों तक बात पहुँचा कर दुकानदारों को उनकी औकात बताने में भी गुरेज नहीं करते।
   रोज की शिकायतों से परेशान पुलिस और प्रशासन के अधिकारी सिक्के स्वीकार न करने को गैर कानूनी और देशद्रोह के बराबर अपराध करार देकर चेतावनी जारी कर के छुट्टी पाते हैं। परेशान कारोबारी जब बैंकों द्वारा  सिक्के न स्वीकार करने का मुद्दा उठाते हैं तो उन्हें भी  आरबीआई की गाइड लाइन का हवाला देकर चेतावनी  जारी कर दी जाती है। समस्या यह है कि इन कवायदों का कोई सार्थक परिणाम अभी तक नहीं निकल पाया है। दुकानदारों की पीड़ा यह है कि सौ-दो सौ रुपये से अधिक का भुगतान सिक्के के रूप में न तो दूसरा व्यापारी/ डीलर / स्टाकिस्ट या एजेंसी लेती है और न तो बैंक लेना चाहता है। इससे सभी कारोबारियों का व्यापार प्रभावित हो रहा है और उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि वह अपने यहां डम्प पड़े सिक्के कहाँ खपाएं। स्थिति यह है कि अनेक कारोबारी अपना व्यावसायिक नुकसान सह कर भी सिक्कों के रूप में लेन-देन से तौबा करने लगे हैं।

  रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने 18 जुलाई 2016 को जारी किये गये अपने मास्टर परिपत्र में बैंकों से यह अपेक्षित किया है कि लेनदेन अथवा विनिमय में नोट एवं सिक्के स्वीकारने जैसी ग्राहक सेवाएं जनसाधारण को अधिक तत्परता और कारगर ढंग से प्रदान करें ताकि उन्हें भारतीय रिजर्व बैंक के क्षेत्रीय कार्यालयों में इस प्रयोजन हेतु न आना पड़े। भारतीय रिजर्व बैंक और वाणिज्य बैंकों के बीच करार का भी मास्टर परिपत्र में हवाला दिया गया है, जिसके अनुसार
(a) बैंक शाखाओं को नोटों के बदले सिक्कों को स्वीकृत करना होगा ।(b) उन्हें जनसाधारण से बिना किसी रूकावट के सभी मूल्यवर्ग के सिक्कों, जो भारतीय सिक्का अधिनियम, 2011 के अधीन वैध मुद्रा हैं; को स्वीकार करना होगा और उनके मूल्य का नोटों में भुगतान करना होगा ।(c) उन्हें अब तक के अनुसार ग्राहकों की सुविधा हेतु भारी मात्रा में प्राप्तियों के लिए सिक्के गिनने वाली मशीनों का प्रयोग करना चाहिए या फिर सिक्कों को तौल कर स्वीकार करना चाहिए ।

  जनता से कहा गया है कि अगर किसी भी बैंक के कर्मचारी सिक्का लेने से मना करते हैं, तो इसकी शिकायत उच्चाधिकारियों से करें। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) के बैंकिंग लोकपाल से भी इसकी शिकायत की जा सकती है। बैंक कर्मचारी भी इस  बात से वाकिफ हैं कि सिक्का जमा करने पर पाबंदी नहीं है लेकिन इसकी गिनती  करने से बचने के लिए वे ग्राहकों को लौटा देते हैं।दूसरे इस समय उनका एक संकट यह भी है कि भुगतान में सिक्के लेने से हर कोई बचना चाहता है। इधर आरबीआई की हालिया  गाइड लाइन के अनुसार बैंक की शाखाओं के लिए यह आवश्यक है कि वे ग्राहकों से एक रुपये या उससे ऊपर तक के सिक्के एक हजार रुपये मूल्य तक की जमाराशि के तौर पर स्वीकार करें।

   तमाम निर्देशों का भी ज्यादा असर नहीं पड़ा है। सबसे खराब हालत तो एक रुपये के सिक्के की है जिसे बन्द करार देकर कोई नहीं ले रहा है। यह बात बेहद अहम है कि इसी तरह की अफवाह के जरिए पिछले दिनों 50 पैसे के सिक्के को परिचालन से बाहर किया जा चुका है। अपने स्तर पर लिए जा रहे  मनमाने फैसले का एक और उदाहरण सामने आया है, एफएमसीजी क्षेत्र की एक प्रसिद्ध बहुराष्ट्रीय कंपनी ने दस रुपये तक के नोट भी भुगतान में लेने से मना कर दिया है। हालात दिन-प्रतिदिन बिगड़ते जा रहे हैं,इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो समस्या और भी विकट हो जाएगी।

                                #अरविंद उपाध्याय


खेती की 'निर्मम हत्या' पर खामोशी क्यों?


   देश में किसानों की आत्महत्या का मामला सरगर्म है। दूसरी तरफ खेती की हत्या भी जारी है लेकिन इस पर किसी का ध्यान नहीं है। देश के कई राज्यों में खेती के निर्मम हत्यारे हैं जंगली जानवर। हमने इनका घर और भोजन छीना,अब ये वन्य जीव हमारे घर ही में हम पर हमलावर हैं। जौनपुर सहित उत्तर प्रदेश के अधिकांश जिलों में किसानों के बीच नीलगाय और वन सूअरों का जबरदस्त आतंक है। ये निर्ममता के साथ फसल साफ कर रहे हैं और किसान असहाय हैं।
   जौनपुर में करीब एक दशक पूर्व फसलों पर शुरू हुआ नीलगाय का हमला लगातार तेज है।समूचे जिले में सब्जी, गेहूँ, मक्का, धान, अरहर, उर्द आदि तकरीबन सभी फसलें अब इनके रहमोकरम पर बोई जा रही हैं।
गोमती और अन्य चार छोटी नदियों के किनारे बसे गाँवों में इनका सर्वाधिक आतंक है। हजारों रुपए की लागत और हाड़-तोड़ मेहनत से तैयार होती फसल को ये बर्बाद कर देते हैं, किसानों का सबसे अधिक नुकसान नीलगाय करती हैं। किसान दिन में खेती के कामों में पसीना बहाने के बाद रात-रात भर जागकर खेतों की रखवाली करने के लिए मजबूर हो गए हैं। इनसे फसलों को बचाने के लिए किये गये सभी उपाय-सभी टोटके बेकार साबित हो रहे हैं।
  नीलगाय के साथ खेती के हत्यारों में एक नाम वन सूअर का भी जुड़ गया है। कुछ वर्षों पूर्व तक एक- दो की संख्या में जौनपुर के चुनिंदा इलाकों में दिखाई देने वाला यह वन्य जीव अब नीलगाय के बाद किसानों के बीच एक और मुसीबत का रूप ले चुका है। एक तरफ नीलगाय आलू और कन्द का ऊपरी हिस्सा चर कर चलते बनते हैं तो दूसरी तरफ वन सूअरों का धावा जमीन के नीचे दबी आलू और कन्द की फसल पर होता है। वन सूअर अपनी थूथन के आगे तक निकले हुए नुकीले लम्बे दाँतों के सहारे आलू और कन्द की फसल खोद कर बाहर कर देते हैं।
  धान,सोयाबीन और गन्ने की फसल बर्बाद करने में नीलगाय और वन सूअरों का बराबर का योगदान है। खास बात यह है कि यह दोनों वन्य जीव बेहद ताकतवर हैं। दोनों काफी मात्रा में फसलें चट कर जाते हैं और उससे ज्यादा बर्बाद कर देते हैं।खरबूजा,तरबूज जैसी फसलें भी इनसे बचा पाना मुश्किल हो गया है।प्रतिरोध करने पर ये कभी- कभी किसानों पर भी हमला कर देते हैं।
  खेती पर हमलावर इन ताकतवर वन्य जीवों के साथ समान प्रकृति के एक घरेलू जीव सांड़ का नाम भी जुड़ गया है। जौनपुर में अभी इनका आतंक कुछ इलाकों तक सीमित है,संख्या भी फिलहाल ज्यादा नहीं है। लेकिन, प्रशासन और संबंधित विभागों की उदासीनता एवं सरकारी नीतियों के कारण भविष्य में यह ताकतवर जीव भी 'खेती के हत्यारों' की सूची में शामिल होने जा रहा है।
कानपुर में स्थित उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड से संबंधित किसान कॉल सेंटर पर फसल के समय रोजाना करीब 16 हजार कॉल आती हैं, इनमें से ज्यादातर लोग नीलगाय और अन्य जानवरों से बचने के उपाय पूछते हैं। कॉल सेंटर में कार्यरत किसान सहायक पंकज कुमार यादव बताते हैं कि प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों से आने वाली हर दूसरी कॉल में लोग इनसे बचने की सलाह मांगते हैं। सेंटर द्वारा किसानों को तरह तरह के उपाय बताये जाते हैं लेकिन समस्या का स्थायी समाधान अधर में है।
 किसानों की मदद के लिए शोध टीम ने कई उपाय तैयार किए हैं, जिसमें तारबंदी के अलावा अलावा हर्बल घोल तक शामिल हैं। ज्यादातर उपाय ऐसे खोजे गये हैं जिसे किसान अपने संसाधनों से स्वयं कर सकें और लागत कम आए। किसान सहायक बताते हैं कि खुद नीलगाय के गोबर से तैयार घोल की गंध से ये (नीलगाय) दूर तक नहीं फटकती हैं। नीलगाय के आतंक से परेशान किसानों के लिए कृषि वैज्ञानिकों ने कई घरेलू और परंपरागत नुस्ख़े बताए हैं जिससे काफी कम कीमत में किसानों को ऐसे पशुओं से आजादी मिल सकती है।
  कृषि विशेषज्ञ और केंद्रीय कृषि मंत्रालय द्वारा संचालित किसान कॉल सेंटर (1800-180-1551) के किसान सलाहकार किसानों को इन देसी नुस्ख़ों को आजमाने की सलाह दे रहे हैं। दावा है कि घरेलू चीजों से तैयार हर्बल घोल इस दिशा में कारगर साबित हो रहा है। बकौल सलाहकार,4 लीटर मट्ठे में आधा किलो छिला हुआ लहसुन पीसकर मिलाएँ, इसमें 500 ग्राम बालू डालें। इस घोल को पांच दिन बाद छिड़काव करें। इसकी गंध से करीब 20 दिन तक नीलगाय खेतों में नहीं आएगी। इसे 15 लीटर पानी के साथ भी प्रयोग किया जा सकता है। बीस लीटर गो-मूत्र, 5 किलोग्राम नीम की पत्ती, 2 किग्रा धतूरा, 2 किग्रा मदार की जड़, फल-फूल, 500 ग्राम तंबाकू की पत्ती, 250 ग्राम लहसुन, 150 लालमिर्च पाउडर को एक डिब्बे में भरकर वायुरोधी बनाकर धूप में 40 दिन के लिए रख दें। इससे तैयार एक लीटर दवा 80 लीटर पानी में मिला कर फसल पर छिड़काव करने से महीना भर तक नीलगाय फसलों को नुकसान नहीं पहुंचाती है। इससे फसल की कीटों से भी रक्षा होती है।
  किसान सहायक रविशंकर बताते हैं कि नीलगाय के गोबर का घोल बनाकर मेड़ से एक मीटर अन्दर फसलों पर छिड़काव करने से अस्थाई रूप से फसलों की सुरक्षा की जा सकती है। एक लीटर पानी में एक ढक्कन फिनाइल के घोल के छिड़काव से फसलों को बचाया जा सकता है।गधों की लीद, पोल्ट्री का कचरा, गोमूत्र, सड़ी सब्जियों की पत्तियों का घोल बनाकर फसलों पर छिड़काव करने से नीलगाय खेतों के पास नहीं फटकती।देशी जीवनाशी मिश्रण बनाकर फसलों पर छिड़काव करने से नीलगाय दूर भागती हैं।कई जगह खेत में रात के वक्त मिट्टी के तेल की डिबरी जलाने से नीलगाय नहीं आती है।
  सलाह यह भी दी गई है कि खेत के चारों ओर कंटीले तार, बांस की फंटियां या चमकीली पट्टियों से घेराबंदी करें। खेत की मेड़ों के किनारे करौंदा, जेट्रोफा, तुलसी, खस, जिरेनियम, मेंथा,लेमन ग्रास, सिट्रोनेला, पामारोजा जैसे पौधों का रोपण भी नीलगाय से सुरक्षा देंगे। खेत में आदमी के आकार का पुतला बनाकर खड़ा करने से रात में नीलगाय देखकर डर जाते हैं। हालाँकि इनमें से कई तरीके ऐसे हैं जिन्हें  जौनपुर के विभिन्न क्षेत्रों में किसान प्रयोग कर रहे हैं लेकिन परिणाम से संतुष्ट नहीं हैं।
  डिहिया गाँव के किसान सर्वदेव पंडित कहते हैं, "नीलगाय अब इतने शातिर और बेखौफ हो गये हैं कि वे सब बाधाओं को पार कर रात में खेत के बीच सो रहे रखवालों की खटिया के नीचे की फसल भी चर जाते हैं। नीलगाय झुंड में रहते हैं।जितना ये फसलों को खाकर नुकसान करते हैं उससे ज्यादा इनके पैरों से नुकसान पहुंचता है। सरसों और आलू के पौधे एक बार टूट गए तो निकलना मुश्किल हो जाता है।"बीच- बीच में इन्हें गोली मारने का परमिट भी दिया जाता रहा है लेकिन इस तेज और शक्तिशाली 'मृग' को मारना अच्छे शिकारियों/शूटरों के बस की ही बात है।
   खुटहन क्षेत्र के बड़े किसान राजेन्द्र प्रसाद सिंह 'राय साहब' ने बेहद क्षोभ के साथ सरकार से माँग की है कि नीलगाय, वन सूअरों और साँड़ों को खेतों से दूर जंगलों की तरफ भगाया जाये अन्यथा किसान अप्रिय एवं आत्मघाती कदम उठाने पर मजबूर हो रहे हैं।सरकार की नई नीति के कारण तेजी से बढ़ रहे साँड़ों से आतंकित किसान इन्हें पकड़ कर सामूहिक रूप से पुलिस थाने में पहुँचाने का मन बना रहे हैं।देखना है कि सरकार खेती के इन निरंकुश हत्यारों पर कब गंभीरता से ध्यान देती है।
   अपनी खेती के इन चलते- फिरते खतरों के आगे किसान असहाय हैं और उनकी बेबसी लगातार बढ़ती जा रही है। उपज से अधिक लागत, प्रकृति की मार आदि कारण उसका मनोबल पहले ही तोड़ चुके हैं। जिले के बहुसंख्य किसान छोटी-छोटी जोतों के मालिक हैं, जिनके पास खेती को छोड़ कर आय के अन्य साधनों की तलाश के अलावा कोई चारा नहीं है।हालाँकि इसमें भी उनके पास थोड़े ही विकल्प हैं।